रात दिन जो भोगते हैं

रात दिन जो भोगते हैं हम वही तो लिख रहे हैं   नाम पर उपलब्धियों के ऑंकड़े ही ऑंकड़े हैं   इक अदद कुर्सी की ख़ातिर घर, शहर, दफ्तर जले हैं   ये भी बच्चे हैं मगर ये क्यों खिलौने बेचते हैं